Wednesday, May 14, 2025

My Cherished Abode

Moulded deep in earth's embrace,

Where magicians, with a mystic grace,

Trick the soil, a golden hoard,

By ancient wonder, richly poured.


Where artists bold, with hues so bright,

The towering landscapes guard with light,

With strokes of offering, colours fly,

Beneath the vast and watchful sky.


Like kaleidoscopic fabrics spun,

Where countless voices have begun,

A vibrant weave of tongue and art,

That beats within this land's own heart.


A flavour deep, a spiced delight,

Where wisdom blooms in herbal might,

Philosophic scents arise,

Beneath the ancient, knowing skies.


With progress fresh, a verdant gleam,

A diverse tapestry, life's bright dream,

And love and kinship, a strong tie,

Where spirits meet beneath one sky.


These are the roots that hold me fast,

The ancient echoes of the past.

But wings unfold, on modern breeze,

With hope and unity, at ease.


This land, my own, where dreams take flight,

From heritage to future bright,

My cherished home, where spirits free,

Holds timeless meaning unto me.

Monday, April 28, 2025

Main Jal Hoon

पंचतत्वों का मैं नायक हूँ

कभी सौम्य हूँ मैं कभी रौद्र रूप भायक हूँ।


खल-खल कर मेरा सुर बहता है

मुझ में जीवन फूटता-फलता रहता है।


मेरा रंग, वर्ण, रूप नहीं है

प्रतिबिम्ब हूँ मैं प्रकृति का, मेरा कोई प्रारूप नहीं है।


अभिशाप-वरदान का अर्क मैं बन जाता हूँ

जब-जब तपस्वियों के कुंडल में समाता हूँ।


वेदों की अमित वाणी मैं हूँ

संकल्पों की कहानी मैं हूँ।


मुझे मथने भर से सम्पूर्ण देवलोक हर्षाया था

कुम्भ के त्यौहार में मैंने हे अमृत बरसाया था।


शिव के कुंतील की कान्ति मैं हूँ

ध्यान में बैठे योगी की शांति मैं हूँ।


निष्कर्ष हूँ मैं भगीरथ के व्रत का

सार्थी हूँ मैं भागीरथी के रथ का।


मेरे तट पर बैठ कन्हैया मुरली की धुन सुनाते हैं

तिरंगे बनाकर कालिंदी में तीनों लोकों तक पहुँचाते हैं।


अति विषम कार्य वो भी महान हुआ है

मेरी पृष्ठ पर हे तो राम सेतु का निर्माण हुआ।


ज़म-ज़म के पाक पानी में मैं हूँ

खालसा पंथ की खालिस निशानी में मैं हूँ।


मैं कभी तो बांध तोड़ कर आता हूँ

सब कुछ बहा ले जाता हूँ।


और कभी दर्शन मेरे दुर्लभ हो जाते हैं

फिर हाय सब सूखे नीर बहाते हैं।


वर्तमान में मेरे ग्रह टकरा रहे हैं

चहुँओर केवल राहु-केतु दिखाई आ रहे हैं।


मैं विलुप्त होने की कगार पर हूँ

मुझे सम्भालो, मैं अंतिम गुहार पर हूँ।


तुम अभी बैठे हो न जाने किस आस पर

हे मानव उठ, मेरी अस्मिता को बचाने का प्रयास कर।


तुम अब भी इस पहेली को बुझ रहे हो

मैं कौन हूँ? अब तक यही खोज रहे हो।


मैं नीर, सलिल, अम्बु, पय, जल हूँ

सचेत रहो मानुष, मैं तुम्हारा कल, आज और कल हूँ।



Saturday, March 22, 2025

Jatayu and Sampati

 

माता की आँखों के दो तारे थे,

जिनमें पलते-बढ़ते उनके स्वप्न सारे थे।


यूँ तो वो बनते-बिगड़ते थे,

पर निपुण निर्भीक थे, संकटों से ना डरते थे।


जब भी स्नेह माता का बँटता था,

कनिष्ठ की झोली में कुछ अधिक ही गिरता था।


ज्येष्ठ को ये कदापि ना भाता था,

पर क्या करे, घर का लाडला था न' उनका छोटा भ्राता था।


कनिष्ठ के निश्चय सम्मुख नक्षत्र, सूर्य, चंद्र, ब्रह्माण्ड झुक जाते थे,

उसको प्रसन्न करने के लिए सभी एड़ी-चोटी का जोर लगाते थे।


कभी तो माता ने सूर्य निगलने वाली कथा सुनाई थी,

कैसे बाल हनुमान की लीला से तीनों लोकों में विपदा आई थी।


वानर होकर जब हनुमान छलांग सूर्य तक लगा सकते हैं,

हम फिर भी पक्षी हैं, सौरमंडल की परिक्रमा कर आ सकते हैं।


जटायु की नीति सुनकर सम्पाती चौंक उठे थे,

ना सुनने पर कनिष्ठ भी मुख लटकाए रूठे थे।


चमकी बुद्धि और एक बात सूझी,

क्यों ना उड़े गगन पार दोनों अनुज।


निकटतम से भी निकट जो पहुँच जाएगा,

बस वही इस स्पर्धा का विजेता कहलाएगा।


पक्षीराज थे सम्पाती, पर भ्रातृप्रेम को टाल ना पाते थे,

छाया बनकर सभी विघ्नों को पार जाते थे।


संग उड़ेंगे तो ध्यान भी रख पाएंगे,

यदि सहसा आन पड़ी कोई आपदा तो काबू कर पाएंगे।


देखते ही देखते पृथ्वी छोटी होती जाती थी,

चमकता लाल सूर्य देखकर कनिष्ठ की लालसा बढ़ती जाती थी।


पवन की गति पर सवार सम्पाती तेज सूर्य का पी जाते हैं,

टुकड़े-टुकड़े बचते हैं पंख, कुछ आधे जल जाते हैं।


अंतिम अनंत गगन में पंख फैलाए सम्पाती जैसे-तैसे कर भू पर लौट आते हैं,

कनिष्ठ को सही सलामत देख फूले न समाते हैं।


खोया तेजस अपने ज्येष्ठ का, जटायु गिर चरणों पर बस समर्पण कर पाए थे,

रोते हुए कनिष्ठ को देख कर सम्पाती मुस्कुराए थे।


उठो वत्स, क्या हुआ जो हम अब उड़ ना पाएंगे?

तुम प्राण हो, तुम्हारे लिए एक क्या, हम षट्कोटि सूर्य सह जाएंगे।


कलि के काल में प्रेम भाई-भाई का लुप्त होने लगा है,

पारदर्शी नहीं रहे संबंध, सब गुप्त होने लगा है।


पल रही पीढ़ी को समय रहते रिश्तों के मायने समझाओ,

प्रिय श्रोताओं, वैर अपनों के बीच से मिटाओ।







Monday, January 6, 2025

Abhav ki Pratidhvani

 लिखकर हाल तुम्हे अपना बता रहा हूँ 

बचा -कुचा जीवन कैसे मैं बिता रहा हूँ।  


उगती हुयी भोर में अँधेरा पाता हूँ 

दो तकियो में भी खुद को अकेला पाता हूँ।  


कोट ,पैंट ,बटुआ , चश्मा और टाई 

ढूंढने पर भी नहीं मिल पायी।  


और रसोई बस तुम्हारे इशारो पर चलती है 

तुम बिन कोई भी चीज़ अपनी जगह पर क्यों नहीं मिलती है।  


नमकीन जुबां से जब भी नाम तुम्हारा पुकराता हूँ 

सत्य के सन्नाटे से ज़रा कुछ सहम जाता हूँ।  


ये जो मुझसे भी प्यारा तुम्हे तुम्हारा बेटा 

सूरज चढ़ आया था सर पर अब भी काम लिए सोफे पर लेटा।  


बेसुध है ये खाने और पीने से 

बस काम -काम की रट लगी  नहीं फर्क पड़ता जीने से।  


पर इतना बुरा भी नहीं हाँ कभी -कभी कछुआ बन जाता है 

काम करने में सप्ताह -सप्ताह लगाता है।  


तुम्हारे पीछे उसने समेटा है सभी को , मुझे भी संभाला है 

हूबहू है नक़ल तुम्हारी घर का वही रखवाला है।  


श्याम की साँझ भी मुझे कुछ यूँ खलती है 

हा -हा -हा करते हैं सब मेरी  हस भी नहीं निकलती है। 


मेज़ -कुर्सी -दरवाज़े -खिड़की सब कुछ तो सही है 

लेकिन इस घर में घर ही नहीं है।  


लाइट और पंखा अपनी मनमर्ज़ी पर ही चलते हैं 

कान पकड़ने वाली नहीं है ना इसलिए मुझसे कहा ये डरते हैं। 


परदे झूल -झूल कर मुझे हर रात डराते हैं 

हार जाता हूँ नींद से जब सपने में तुम्हे ले आते है।  


ज़्यादा तुम इतराना मत मै भी अपनी टिकट जल्द  ही कटवाऊंगा 

तुम्हारे बेटे  का घर बसाकर पास तुम्हारे आऊँगा।  


अब बस कलम और हिम्मत जवाब देने लगी है 

धुंदला रहा है कागज़ आंखें मेरी बहने लगी है।  


 




Bhatakati Kaushalya

 रमणीय भवन जिसपर स्वयं भो -लोक इतराता था 

निशा में भी जुगनुओं संग तारका मंडल सज जाता था।  


अब स्वर्ण रथ पर स्वार आदित्य दबे -पांव ही निकल जाते  है 

नीर बहाते है नदिया -जलद कुसुम खिलते ही मुर्झा जाते है।  


पीत कक्ष में श्वेत शुन्य सम्पाप्त बैठी है पट रानी 

उपवास में निर्जला त्याग कर अन्न और वाणी।  


प्रतिदिन हे ऋषि -मुनि -वैद -हकीम नब्ज़ पढ़कर जाते है 

फिर भी रानी की अवस्था ना पाते हैं।  


विरह से घ्रस्त रानी शोक को शब्द दे ना पायी थी 

वैसे तो निस्तब्ध थी लालसा एक नयनों में झलक आयी थी।  


भोर गिरती थी दिन में और दिन आता था साँझ में और साँझ पिघलती थी रात में 

पर माँ ढूंढ रही राम लल्ला को आवरण के पीछे, शैया के नीचे और बचपन की काठ में।  


मन को मनाकर मन की सुनती जाती थी 

पर सत्य के समक्ष वो कुछ हार जाती थी।  


दर -दर भटकती थी वो इस आस में 

कोई सुने याचनाएं उनकी भेज दे राम उनके पास में।  


हर सूक्ष्म क्षण कोटि गिरियों समान नज़र आता था 

व्याकुल करता हृदय को कचोटता जाता था।  


मन के  तैखाने  में पीड़ा संजोकर रखती है 

निग़लती रहती है कटु यथार्थ को साँझा कर ना सकती है।  


नित्यम यही रानी का आचार था 

बस राम -नाम ही उसका आहार था।  


धुंदला था कल वो कुछ देख ना पाती थी 

"राम आएंगे " इसी रट पर जीवन जिये वो जाती थी।  



Sunday, January 5, 2025

Fauji - Ek Parichay

 ना किस मौज में है 

सुना है अब वो फ़ौज में है।  


एड़ियां घिस गयी है उसे मनाते आखिर फौजी बनकर क्या ही फयादा है 

सिपाही की बिसाद तो महज़ प्यादा है।  


पर जनाब के कानो में जूँ तक नहीं रेंगती चल दिए बस देश प्रेम के तमगे टांग कर 

टक -ट्कि लगाकर देखती रही मैया जब वो गए देहलीज़ लांग कर।  


चिट्ठियों में तो बस उसका हस्ता चेहरा दिखता था 

स्वर्ग नाम के नर्क के बारे में वो कहाँ कुछ लिखता था।  


तरक्की देखकर उसकी मैं भी ज़रा इतराने लगा था 

चौपाल में बैठ फौजियों का क़िस्सा सुनाने लगा  था।  


पर ये मोयी ख़ुशी भी कभी एक जगह कहाँ टिकी है 

दर्द के हाथों ये तो कौड़ियों भाव बिकी है।  


ठन्डे चूल्हे पर जलता दूध उफान मार रहा था 

कोई तो बिच्छू था जो अंदर -ही -अंदर काट रहा था।  


दौड़ता -हांफता हुआ आया डाकिया 

सरकारी फरमान में लिपटा कफ़न मुझे थमा दिया।  


गाजे- बाजे संग फौजियों का जमावड़ा चला आया था 

तिरंगे में रंगा तेरा जनाज़ा सजाया था।  


हर कूंचे -चौक -चौबारे सब एक स्वर में गाते थे 

भारत की माँ जय कहकर शहीद की बरात में जुड़ते जाते थे।  


बच्चे -बूड़े -जवान सभी नीर बहाते थे 

सलाम करते थे तुझको शीश निवाते थे।  


आहुति दि है तुमने इस रक्षा अनुष्ठान में 

सीखेंगी पीडियां तुम्हारे अभिप्रेरक प्रतिष्ठान से 


बोया बीज तम्हारा अब फल-फूल रहा है 

आनेवाला कल हमारे इन फौजियों के कंधो पर झूल रहा है।  


खुश हो ना ये जानकर की तुम्हारी जलाई लौ  अब   अग्नि बनती जाती है 

अब हर माँ अपने बेटे को फौजी बनाना चाहती है।