पंचतत्वों का मैं नायक हूँ
कभी सौम्य हूँ मैं कभी रौद्र रूप भायक हूँ।
खल-खल कर मेरा सुर बहता है
मुझ में जीवन फूटता-फलता रहता है।
मेरा रंग, वर्ण, रूप नहीं है
प्रतिबिम्ब हूँ मैं प्रकृति का, मेरा कोई प्रारूप नहीं है।
अभिशाप-वरदान का अर्क मैं बन जाता हूँ
जब-जब तपस्वियों के कुंडल में समाता हूँ।
वेदों की अमित वाणी मैं हूँ
संकल्पों की कहानी मैं हूँ।
मुझे मथने भर से सम्पूर्ण देवलोक हर्षाया था
कुम्भ के त्यौहार में मैंने हे अमृत बरसाया था।
शिव के कुंतील की कान्ति मैं हूँ
ध्यान में बैठे योगी की शांति मैं हूँ।
निष्कर्ष हूँ मैं भगीरथ के व्रत का
सार्थी हूँ मैं भागीरथी के रथ का।
मेरे तट पर बैठ कन्हैया मुरली की धुन सुनाते हैं
तिरंगे बनाकर कालिंदी में तीनों लोकों तक पहुँचाते हैं।
अति विषम कार्य वो भी महान हुआ है
मेरी पृष्ठ पर हे तो राम सेतु का निर्माण हुआ।
ज़म-ज़म के पाक पानी में मैं हूँ
खालसा पंथ की खालिस निशानी में मैं हूँ।
मैं कभी तो बांध तोड़ कर आता हूँ
सब कुछ बहा ले जाता हूँ।
और कभी दर्शन मेरे दुर्लभ हो जाते हैं
फिर हाय सब सूखे नीर बहाते हैं।
वर्तमान में मेरे ग्रह टकरा रहे हैं
चहुँओर केवल राहु-केतु दिखाई आ रहे हैं।
मैं विलुप्त होने की कगार पर हूँ
मुझे सम्भालो, मैं अंतिम गुहार पर हूँ।
तुम अभी बैठे हो न जाने किस आस पर
हे मानव उठ, मेरी अस्मिता को बचाने का प्रयास कर।
तुम अब भी इस पहेली को बुझ रहे हो
मैं कौन हूँ? अब तक यही खोज रहे हो।
मैं नीर, सलिल, अम्बु, पय, जल हूँ
सचेत रहो मानुष, मैं तुम्हारा कल, आज और कल हूँ।
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