माता की आँखों के दो तारे थे,
जिनमें पलते-बढ़ते उनके स्वप्न सारे थे।
यूँ तो वो बनते-बिगड़ते थे,
पर निपुण निर्भीक थे, संकटों से ना डरते थे।
जब भी स्नेह माता का बँटता था,
कनिष्ठ की झोली में कुछ अधिक ही गिरता था।
ज्येष्ठ को ये कदापि ना भाता था,
पर क्या करे, घर का लाडला था न' उनका छोटा भ्राता था।
कनिष्ठ के निश्चय सम्मुख नक्षत्र, सूर्य, चंद्र, ब्रह्माण्ड झुक जाते थे,
उसको प्रसन्न करने के लिए सभी एड़ी-चोटी का जोर लगाते थे।
कभी तो माता ने सूर्य निगलने वाली कथा सुनाई थी,
कैसे बाल हनुमान की लीला से तीनों लोकों में विपदा आई थी।
वानर होकर जब हनुमान छलांग सूर्य तक लगा सकते हैं,
हम फिर भी पक्षी हैं, सौरमंडल की परिक्रमा कर आ सकते हैं।
जटायु की नीति सुनकर सम्पाती चौंक उठे थे,
ना सुनने पर कनिष्ठ भी मुख लटकाए रूठे थे।
चमकी बुद्धि और एक बात सूझी,
क्यों ना उड़े गगन पार दोनों अनुज।
निकटतम से भी निकट जो पहुँच जाएगा,
बस वही इस स्पर्धा का विजेता कहलाएगा।
पक्षीराज थे सम्पाती, पर भ्रातृप्रेम को टाल ना पाते थे,
छाया बनकर सभी विघ्नों को पार जाते थे।
संग उड़ेंगे तो ध्यान भी रख पाएंगे,
यदि सहसा आन पड़ी कोई आपदा तो काबू कर पाएंगे।
देखते ही देखते पृथ्वी छोटी होती जाती थी,
चमकता लाल सूर्य देखकर कनिष्ठ की लालसा बढ़ती जाती थी।
पवन की गति पर सवार सम्पाती तेज सूर्य का पी जाते हैं,
टुकड़े-टुकड़े बचते हैं पंख, कुछ आधे जल जाते हैं।
अंतिम अनंत गगन में पंख फैलाए सम्पाती जैसे-तैसे कर भू पर लौट आते हैं,
कनिष्ठ को सही सलामत देख फूले न समाते हैं।
खोया तेजस अपने ज्येष्ठ का, जटायु गिर चरणों पर बस समर्पण कर पाए थे,
रोते हुए कनिष्ठ को देख कर सम्पाती मुस्कुराए थे।
उठो वत्स, क्या हुआ जो हम अब उड़ ना पाएंगे?
तुम प्राण हो, तुम्हारे लिए एक क्या, हम षट्कोटि सूर्य सह जाएंगे।
कलि के काल में प्रेम भाई-भाई का लुप्त होने लगा है,
पारदर्शी नहीं रहे संबंध, सब गुप्त होने लगा है।
पल रही पीढ़ी को समय रहते रिश्तों के मायने समझाओ,
प्रिय श्रोताओं, वैर अपनों के बीच से मिटाओ।
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