Monday, January 6, 2025

Bhatakati Kaushalya

 रमणीय भवन जिसपर स्वयं भो -लोक इतराता था 

निशा में भी जुगनुओं संग तारका मंडल सज जाता था।  


अब स्वर्ण रथ पर स्वार आदित्य दबे -पांव ही निकल जाते  है 

नीर बहाते है नदिया -जलद कुसुम खिलते ही मुर्झा जाते है।  


पीत कक्ष में श्वेत शुन्य सम्पाप्त बैठी है पट रानी 

उपवास में निर्जला त्याग कर अन्न और वाणी।  


प्रतिदिन हे ऋषि -मुनि -वैद -हकीम नब्ज़ पढ़कर जाते है 

फिर भी रानी की अवस्था ना पाते हैं।  


विरह से घ्रस्त रानी शोक को शब्द दे ना पायी थी 

वैसे तो निस्तब्ध थी लालसा एक नयनों में झलक आयी थी।  


भोर गिरती थी दिन में और दिन आता था साँझ में और साँझ पिघलती थी रात में 

पर माँ ढूंढ रही राम लल्ला को आवरण के पीछे, शैया के नीचे और बचपन की काठ में।  


मन को मनाकर मन की सुनती जाती थी 

पर सत्य के समक्ष वो कुछ हार जाती थी।  


दर -दर भटकती थी वो इस आस में 

कोई सुने याचनाएं उनकी भेज दे राम उनके पास में।  


हर सूक्ष्म क्षण कोटि गिरियों समान नज़र आता था 

व्याकुल करता हृदय को कचोटता जाता था।  


मन के  तैखाने  में पीड़ा संजोकर रखती है 

निग़लती रहती है कटु यथार्थ को साँझा कर ना सकती है।  


नित्यम यही रानी का आचार था 

बस राम -नाम ही उसका आहार था।  


धुंदला था कल वो कुछ देख ना पाती थी 

"राम आएंगे " इसी रट पर जीवन जिये वो जाती थी।  



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