शुन्य शैया पर सोया सड़ता अँधेरा
कतरा- कतरा निघलता गहरा -गहरा।
लाली लालिमा लहु की फूटी
जब डोर जीवन की टूटी।
सम्पूर्ण सृष्टि ने संग में हुंकारा
त्राहि -त्राहि कर माँ शक्ति को पुकारा।
अश्रु अविरल ैवेघ में उफान मार रहे थे
और विरोध में खड़ा था पुरुष उसकी बनाई लकीरे जो लांग रहे थे।
रक्त लीला में रमी वो खुद को रंग रही थी
आवाहन शक्ति कुछ इस ढंग से कर रही थी।
आँखों में एक अजीब सी आशा लिए वो दम भर रही थी
विलुप्त होना चाहती है , वैसे भी जीते जी भी मर ही रही थी।
बाहों को बड़ा -बड़ा कर वो बनाती पौड़ियाँ
जो थी पाँव की जुत्तियाँ दो कौड़ियाँ।
चील सी चीख चीरती हुई सन्नाटे को "माँ !!! तुझे छोड़ सिंहासन आना ही होगा "
कौन है अधिकारी वसुधा आज तुझे बताना ही होगा।
हम तो लहराती फैसले हैं , हमे दबोचा,उखाड़ा , काटा , कुचला जा रहा है
ये नर स्वयं को त्रिलोकीनाथ बता रहा है।
इत्रा रहे ये त्रिदेव के अंश सत्ता जो इनके पास है
अब इन्हे कौन बताये? कौन जगाये ? इनके इष्ट हे देवी के दास है।
चरम सीमा पर है दरिंदगी , खुल आम फिरती है हैवानो की टोलियाँ
सजी पड़ी है अर्थियां फूलों की और खाक हो चुकी है डोलियाँ।
तुम आकर पाट दो पापियों के रक्त से भो को
तुम ही तो सर्वगुण समपण स्वरुप हो।
इस दूषित दुनिया में अब और ना रह पाएंगे
शपथ है तुम्हारी अब और विलम्ब ना सह पाएंगे।
उन्मुक्त करो हमें माँ शीग्र अति शीग्र तुम चली आओ
गर आने में हो दिक्कत तो हमे समीप बुलाओ।
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