बड़ा तुम इतरा रहे हो
खुद को बड़ा प्रेमी बता रहे हो।
बहुत उड़ लिए तुम्हे ज़मीन पर मैं लाती हूँ
और खंडित कर ढाई अक्षर का मैं पाठ पढ़ाती हूँ।
रचा प्रथम अध्याय प्रेम का वो पहले से भी पहले थे
तीनो लोको के आदर्श वो नहले पर दहले थे।
वर वो जो अनंत अनेका अविनाशी है
और मरघट का वो वासी है।
भस्मे रगे, नाग सजे और गले में मुंडो की माला
चंद्र चूड़ामणि बन श्रृंगार कर जटा से बहती गंगधरा।
बैठे सिंहासन पर वो बागम्बर
सहज सरल श्वेत वो बीन कोई आडम्बर।
हर -हर का आवाहन कर हर संकट टल जाते है
महादेव के होने भर से निश्चय अटल हो जाते है।
वधु वो जिससे स्वयं सौंदर्य और सुन्दर हो जाता है
समक्ष ब्रह्माण्ड शीश निवाता है।
जो तप में तप रही मनाना उस वैरागी को
आंख मूँद कर बैठे जो वो परम त्यागी को।
भगवती संसार कलयाणी है वो माँ जगदम्बा
छप्पर वाली काली है वो शेरांवाली माँ अम्बा।
अर्ध अंग है गौरीसा
देखा है तुमने प्रेम ऐसा ?
और कुछ आसान नहीं सब तप कर ही पाया है
ईश्वर का प्रेम भी सदियों बाद सम्पूर्ण हो पाया है।
अठखेलियां है उनकी भी वो रूठते -मनाते है
हाँ एक बात है शिव शक्ति अंत तक साथ निभाते हैं।
पढ़ो पाठ प्रेम का उमा शंकर से
प्रेम चाहे गहरी लंगन नहीं होता ये क्षण भर से।