Tuesday, April 18, 2017

Pagli si Ladki

उसकी हाय में मेरी हाय निकलती है
आह में जब वो आहें भरती है
खुद तो पागल है
मुझे भी पागल करती है

कभी यूँही हस्ती है
बिन बात के रूठा करती है
पर मान जाती है तभी बात बनती है
पगली सी वो है और मुझको भी पागल करती है

बिखरती है कलियाँ
खुश होते हैं दोनों जहाँ
मुड़ती है हर नज़र
उसके दीदार को
जब भी वो गली से निकलती है
क्या समझाओ उसे की उसकी एक झलक को तरसते मेरे नैन
पता नहीं उसके ख्यालों में कहाँ जाते मेरे दिन-रेन
बेखबर सी वो नहीं समझती है
पगली सी वो मुझको भी पागल करती है

परेशानी में जब यूँही हस्ती है
उसी दुःखी देखकर मेरी जान भी पिघलती है
बहकता हूँ मैं
महकती है वह राह
जिस राह से वह गुज़रती है
पगली सी वो है मुझको भी पागल करती है

एक मुस्कान पर नूर की बारिश बरसती है
उसके बिना ज़िन्दगी वक़्त की तरह कटा करती है
पर जब हो पास मेरे तभी ज़िन्दगी, ज़िन्दगी लगती है
वो चाहे मुझे दुत्कार भी दे
यह मेरी पहचान कुछ नालायक सी लगती है
पगली सी वो मुझे भी पागल करती है

रोता हूँ मैं भी जब वो चुपके से सिसकती है
कुछ कहने की हिम्मत करूँ कैसे ]
बात जब हलक में अटकती है
ढ़कने ऐसी रफ़्तार पकड़ती हैं
मेरी जान जब मेरे गले लगती है
आती है जान में मेरी जान
पगली सी वो मुझे भी पागल करती है

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