हुजूम का सैलाब है उसके डेरे में
आफताब भी मांग रहा उससे रौशनी ,इतना नूर है उसके चेहरे में
मालूम पड़ता है की मुकर्रर है वो नहीं पाबंध किसी पहरे में।
मैं तो उकता गया हो उसका महज़ब टटोलकर
वो खुदा -राम को रख देता है एक हे तराज़ू में तोल कर
बेख़ौफ़ कह देता है सभी साफ़ -साफ़ बोल कर।
लफ्ज़ो के तेज़ तरार बाण चलाता है
किताब के साथ -साथ किरपान भी उठाता है।
और तो और दुश्मनो के अंतिम क्षण खुद हे आँसू बहाता है।
यूँ तो झुका हुआ आसमान है वो , बस जुर्म के आगे शीश कटाता है
कहते हैं सिख उसे ताउम्र सीखता जाता है
चढ़ती कला में रहता है ,सभी का भला चाहता है।
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