Monday, January 6, 2025

Abhav ki Pratidhvani

 लिखकर हाल तुम्हे अपना बता रहा हूँ 

बचा -कुचा जीवन कैसे मैं बिता रहा हूँ।  


उगती हुयी भोर में अँधेरा पाता हूँ 

दो तकियो में भी खुद को अकेला पाता हूँ।  


कोट ,पैंट ,बटुआ , चश्मा और टाई 

ढूंढने पर भी नहीं मिल पायी।  


और रसोई बस तुम्हारे इशारो पर चलती है 

तुम बिन कोई भी चीज़ अपनी जगह पर क्यों नहीं मिलती है।  


नमकीन जुबां से जब भी नाम तुम्हारा पुकराता हूँ 

सत्य के सन्नाटे से ज़रा कुछ सहम जाता हूँ।  


ये जो मुझसे भी प्यारा तुम्हे तुम्हारा बेटा 

सूरज चढ़ आया था सर पर अब भी काम लिए सोफे पर लेटा।  


बेसुध है ये खाने और पीने से 

बस काम -काम की रट लगी  नहीं फर्क पड़ता जीने से।  


पर इतना बुरा भी नहीं हाँ कभी -कभी कछुआ बन जाता है 

काम करने में सप्ताह -सप्ताह लगाता है।  


तुम्हारे पीछे उसने समेटा है सभी को , मुझे भी संभाला है 

हूबहू है नक़ल तुम्हारी घर का वही रखवाला है।  


श्याम की साँझ भी मुझे कुछ यूँ खलती है 

हा -हा -हा करते हैं सब मेरी  हस भी नहीं निकलती है। 


मेज़ -कुर्सी -दरवाज़े -खिड़की सब कुछ तो सही है 

लेकिन इस घर में घर ही नहीं है।  


लाइट और पंखा अपनी मनमर्ज़ी पर ही चलते हैं 

कान पकड़ने वाली नहीं है ना इसलिए मुझसे कहा ये डरते हैं। 


परदे झूल -झूल कर मुझे हर रात डराते हैं 

हार जाता हूँ नींद से जब सपने में तुम्हे ले आते है।  


ज़्यादा तुम इतराना मत मै भी अपनी टिकट जल्द  ही कटवाऊंगा 

तुम्हारे बेटे  का घर बसाकर पास तुम्हारे आऊँगा।  


अब बस कलम और हिम्मत जवाब देने लगी है 

धुंदला रहा है कागज़ आंखें मेरी बहने लगी है।  


 




Bhatakati Kaushalya

 रमणीय भवन जिसपर स्वयं भो -लोक इतराता था 

निशा में भी जुगनुओं संग तारका मंडल सज जाता था।  


अब स्वर्ण रथ पर स्वार आदित्य दबे -पांव ही निकल जाते  है 

नीर बहाते है नदिया -जलद कुसुम खिलते ही मुर्झा जाते है।  


पीत कक्ष में श्वेत शुन्य सम्पाप्त बैठी है पट रानी 

उपवास में निर्जला त्याग कर अन्न और वाणी।  


प्रतिदिन हे ऋषि -मुनि -वैद -हकीम नब्ज़ पढ़कर जाते है 

फिर भी रानी की अवस्था ना पाते हैं।  


विरह से घ्रस्त रानी शोक को शब्द दे ना पायी थी 

वैसे तो निस्तब्ध थी लालसा एक नयनों में झलक आयी थी।  


भोर गिरती थी दिन में और दिन आता था साँझ में और साँझ पिघलती थी रात में 

पर माँ ढूंढ रही राम लल्ला को आवरण के पीछे, शैया के नीचे और बचपन की काठ में।  


मन को मनाकर मन की सुनती जाती थी 

पर सत्य के समक्ष वो कुछ हार जाती थी।  


दर -दर भटकती थी वो इस आस में 

कोई सुने याचनाएं उनकी भेज दे राम उनके पास में।  


हर सूक्ष्म क्षण कोटि गिरियों समान नज़र आता था 

व्याकुल करता हृदय को कचोटता जाता था।  


मन के  तैखाने  में पीड़ा संजोकर रखती है 

निग़लती रहती है कटु यथार्थ को साँझा कर ना सकती है।  


नित्यम यही रानी का आचार था 

बस राम -नाम ही उसका आहार था।  


धुंदला था कल वो कुछ देख ना पाती थी 

"राम आएंगे " इसी रट पर जीवन जिये वो जाती थी।  



Sunday, January 5, 2025

Fauji - Ek Parichay

 ना किस मौज में है 

सुना है अब वो फ़ौज में है।  


एड़ियां घिस गयी है उसे मनाते आखिर फौजी बनकर क्या ही फयादा है 

सिपाही की बिसाद तो महज़ प्यादा है।  


पर जनाब के कानो में जूँ तक नहीं रेंगती चल दिए बस देश प्रेम के तमगे टांग कर 

टक -ट्कि लगाकर देखती रही मैया जब वो गए देहलीज़ लांग कर।  


चिट्ठियों में तो बस उसका हस्ता चेहरा दिखता था 

स्वर्ग नाम के नर्क के बारे में वो कहाँ कुछ लिखता था।  


तरक्की देखकर उसकी मैं भी ज़रा इतराने लगा था 

चौपाल में बैठ फौजियों का क़िस्सा सुनाने लगा  था।  


पर ये मोयी ख़ुशी भी कभी एक जगह कहाँ टिकी है 

दर्द के हाथों ये तो कौड़ियों भाव बिकी है।  


ठन्डे चूल्हे पर जलता दूध उफान मार रहा था 

कोई तो बिच्छू था जो अंदर -ही -अंदर काट रहा था।  


दौड़ता -हांफता हुआ आया डाकिया 

सरकारी फरमान में लिपटा कफ़न मुझे थमा दिया।  


गाजे- बाजे संग फौजियों का जमावड़ा चला आया था 

तिरंगे में रंगा तेरा जनाज़ा सजाया था।  


हर कूंचे -चौक -चौबारे सब एक स्वर में गाते थे 

भारत की माँ जय कहकर शहीद की बरात में जुड़ते जाते थे।  


बच्चे -बूड़े -जवान सभी नीर बहाते थे 

सलाम करते थे तुझको शीश निवाते थे।  


आहुति दि है तुमने इस रक्षा अनुष्ठान में 

सीखेंगी पीडियां तुम्हारे अभिप्रेरक प्रतिष्ठान से 


बोया बीज तम्हारा अब फल-फूल रहा है 

आनेवाला कल हमारे इन फौजियों के कंधो पर झूल रहा है।  


खुश हो ना ये जानकर की तुम्हारी जलाई लौ  अब   अग्नि बनती जाती है 

अब हर माँ अपने बेटे को फौजी बनाना चाहती है।