Saturday, July 1, 2017

Kitab aur Woh

मैं एक हे किताब के हे पन्ने
पर आकर रुकता हूँ
उस एक सफे की चौथी पंक्ति
के लफ्ज़ो को बार - बार
हर बार पढ़ता हूँ
उस सफे में तेरे दिए हुए
सूखे गुलाब की महक  हैं
उन अल्फ़ाज़ों को अपने
उँगलियों के तले महसूस करता हूँ
जी उठते है वो जब अपने आप से तेरा ज़िक्र करता हूँ
मैं उस किताब के हे पन्ने पर आकर रुकता हूँ

बोलने लगती हैं ग़ज़ल
आती है गीतों में साँस
तुझे सोच कर जब यूँही हस्ता हूँ
 वो क्या समझेंगे कहते हैं पागल मुझे को
पर जब उक्त जाता हूँ दुनियादारी के झमेलों से
उसी सफे के आँचल  छुपता हूँ
मैं उस किताब एक हे पन्ने  हूँ।   

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