तम खड़े हुए हैं वो मेरे प्रभु हैं
संशय में पड़े वो मेरे प्रभु है।
हम विघ्नो को काट -पाट लौटें हैं अब
कोई उत्सव नहीं ? कहाँ गए हैं सब ?
हे कमल नयन हे रघुवंशी
तीनो लोकों के नायक , विघ्नो के विध्वंशी।
ये कलयुग है यहाँ माला दीपों की ना सजाते हैं
आइये प्रभु देखिये कलयुग वासी कसिए दीपावाली मनाते हैं।
धनुष बाण तनाकर दोनों भाई तन गए
जब अँधेरे में कारतूस के बम बन गए।
अग्नि वर्षा बरस रही आकाश से
विनाश मिल रहा हो विनाश से।
क्षणभर जलते थे फिर राख हो जाती थी
उसके राख से वसुधा ख़ाक हो जाती थी।
मानुष हे अनिला में विष घोल रहा है
दृष्टिहीन होकर अपने कर्तव्य भूल रहा है।
अधिकारी बन वो भी यूँ ऐठा है
नहीं जनता वो भीष्म अपराध कर बैठा है।
कोलाहल से जीव -जंतु छिपते , बिलगते रोते है
पूछते है प्रभु से क्या मानव ऐसे होते है।
चिता पर पड़ा विवेक अपनी अंतिम श्वासे गिनता है
और इस लोभी प्राणी को बस अपन धन की चिंता है।
विनती करता हूँ अपने आशीषो से ज्वलित एक बार ज्योति अंतर्मन में
कृपा कर सुना दो फिर से गीता का सार अपने जन में।
हताश हो चल दिए सिया ,राम लखन संग वानर सेना
जहाँ आस लगाए बैठा ना हो दास कोई वह दर्शन क्या ही देना।
गंभीर होकर सोचो वासियो यदि हम यूँही प्रकृति संग खिलवाड़ करते जायेंगे
लाख करलो फिर तुम जतन राम लौट ना आएंगे।
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