Friday, November 8, 2024

Antim Mitra

 एक युग में ऐसा विध्वंस हुआ 

सम्पूर्ण वंश का ध्वंस हुआ।  


विनाश की अँधियाँ घुलती जाती थी 

एक काली छप्पर वाली थी जो धरती को पाटती जाती थी।  


सत्य है की घर के भेदी ने ही लंका को ढाया था 

आस्तीन के सर्प थे , अपनों पर शास्त्रों का डंका बजाया था।  


बन वाहिनी कर्ण और पार्थ टकराते थे 

फूटते थे फिर जवालामुखी बन जाते है।  


रथ  के चक्के के चक्कर ने राधे को घेरा था 

छट गया तेजस चहुंओर बस काल का अँधेरा था।  


रक्तनीर में लिपटे कर्ण पीड़ा में करहाते है 

अंतिम सन्देश सुनाने को दुर्योधन को बुलवाते है। 


विद्युत् पर स्वर दुर्योधन युद्ध चीरते चले आते है 

मित्र की ये दशा देखकर घुटनो पर गिर जाते है।  


और ऐसे दृश्य अतियंत दुर्लभ होते है 

मृत्यु के व्याल फन फैलाये बैठा हो और मित्र गले लग जाते है।  


हे सखा तुम्हे से है ये तूच राधे तुम्हारा ही सरमाया हूँ 

तम्हारे कारण हे रण में वीर कर्ण बन पाया हूँ।  


विश्व विरुद्ध था मेरे कौशल मेरे विराम लगाया था 

जाति पूछते थे मेरे कुल पर प्रशन उठाया था।  


मैं एक था, मै  अकेला था 

मिलकर सभी ने मुझे निचता की ओर ढकेला था।  


सियारो के झुण्ड में बस एक सिंह दहाड़ा था 

आवाज़ उठायी मेरे हक़ वोही मेरा सहारा था।  


माथे पर तुमने मेरे मुकुट सजाया है 

चरणों की धुल को तिलक बनाया है।  


इस अंग राज का अंग -अंग सम्पर्पित तुम्हे हो जायेगा 

उपकार तुम्हारा ये दास जनमो -जनमो तक चुकाएगा।  


मरण से अभय हूँ परन्तु मैं पछताऊंगा 

बस तम्हारा राज्याभिषेक ना देख पाऊँगा।  


हे सहचर तुम मात्र मित्र नहीं तुम मेरे प्राण हो 

कर्ण तुम जानते नहीं तुम कुरुवंशियों की शान हो।  


मुझ अभागे को ना कोई सुहाता था 

ना समझ कहकर मुझे समझ ना पाता था।  


अहोभाग्य मेरे की महारथी कर्ण जीवन बिता मैं पाया हूँ 

हार गया हूँ सभी से कम -से -कम मित्रता निभा मै पाया हूँ।  


निश्चिन्त रहो बंधू तुम्हारी मृत्यु व्यर्थ ना जाएगी 

ये अंतिम यथार्थ सुखाता है इतिहास में दर्ज हो जाएँगी।  








Ram nahin ab Ayenge

 तम खड़े हुए हैं वो मेरे प्रभु हैं 

संशय में पड़े वो मेरे प्रभु है।  


हम विघ्नो को काट -पाट लौटें हैं अब 

कोई उत्सव नहीं ? कहाँ गए हैं सब ?


हे कमल नयन हे रघुवंशी 

तीनो लोकों के नायक , विघ्नो के विध्वंशी।  


ये कलयुग है यहाँ माला दीपों की ना सजाते हैं 

आइये प्रभु देखिये कलयुग वासी कसिए दीपावाली मनाते हैं।  


धनुष बाण तनाकर दोनों भाई तन गए 

जब अँधेरे  में कारतूस के बम बन गए।  


अग्नि वर्षा बरस रही आकाश से 

विनाश मिल रहा हो विनाश से।  


क्षणभर जलते थे फिर राख हो जाती थी 

उसके राख से वसुधा ख़ाक हो जाती थी।  


मानुष हे अनिला में विष घोल रहा है 

दृष्टिहीन होकर अपने कर्तव्य भूल रहा है। 


अधिकारी बन वो भी यूँ ऐठा है 

नहीं जनता वो भीष्म अपराध कर बैठा है।  


कोलाहल से जीव -जंतु छिपते , बिलगते रोते है 

पूछते है प्रभु से क्या मानव ऐसे होते है।  


चिता पर पड़ा  विवेक अपनी अंतिम श्वासे गिनता है 

और इस लोभी प्राणी को बस अपन धन की चिंता है।  


विनती करता हूँ अपने आशीषो से ज्वलित एक बार ज्योति अंतर्मन में 

कृपा कर सुना दो फिर से गीता का सार अपने जन में।  


हताश हो चल दिए सिया ,राम लखन संग वानर सेना 

जहाँ आस लगाए बैठा ना हो दास कोई वह दर्शन क्या ही देना। 


गंभीर होकर सोचो वासियो यदि हम यूँही प्रकृति संग खिलवाड़ करते जायेंगे 

लाख करलो फिर तुम जतन राम लौट ना आएंगे।