कोप भवन की काल कुटी में
कर्कश करती कैकेयी त्रुटि में।
रिक्त नेत्र बता रहे है
स्मृति राम की सत्ता रही है।
कालचक्र था गति पकड़ता
पछतावे का पारा पड़ता।
अपने वचनो की चिता सजाती है
तीनो लोक बैठे है मौन कैकेयी शोक मनाती है।
हे राम तुम तोड़ पिनाकी दुखो का हरो मेरे संतापों को
यदि ना हो सके बुलकारो यमदूतो को भस्म करो पापो को।
हे लखन लो खडग और काट दो मेरी जिह्वा को
विषकंठ का श्राप मुझे है काट दो मेरी ग्रीवा को।
मुझे अभागन ने माँ होकर क्या ही पाया है
कुमताओ की श्रेणी में श्रेष्ठ स्थान मिल पाया है।
शंखनाद के साथ -साथ गजराजों का गर्जन हुआ
अशोक हो जाता है शोक जब भवन में सियाराम का आगमन हुआ।
तम में सोई पटरानी नयनो से नयनो ना मिला पाती है
अश्रुओ से धोती चरणकमल को कर्मो पर पछताती है।
विलम्भ अविलम्भ ना खोते है बस सीने से लग जाते है
माँ के सामने भगवान भी बालक बन जाते है।
शमा याचना करती कैकेयी पर अंकुश लगाते है
लाड़ लगाते है सारी लीला समझाते है।
क्या कहूं तुम्हे माँ तुम बिन कैसे रह पाया हूँ
शतकोटि नमन करता हूँ तुम्हे ,कारण तुम्हारे हे जनम सफल कर पाया हूँ।
पाषाण ह्रदय कर तुमने कैसे ये कदम उठाया होगा
पुत्र मोह का द्वन्द तुमने कैसे मिटाया होगा।
तुमने आहुति दी स्वयं की विषपान किया
ांसि पोंछो माँ तुमने ममता का सम्मान किया।
फिर क्यों हम आधा सच ही दिखाते है
बिन समझे -सूझे ही बात मान जाते है।
प्यारे श्रोताओं पढ़ो , परखो और पहचानो
तर्क करो सत्य को जानो।