Sunday, May 5, 2024

Kathghare mein Shakuni

धुंध में लंगड़ाती हुई परछाई

लंगड़ाती-लंगड़ाती सामने आई
"नहीं" चीखती चल
विद्रोह की थी वो चीख

"मेरे हुज़ूर, My Lord मेरे सरकार
हो जाए अनहोनी, अनर्थ हो जाए कह कर अगली बात
वाणी को दे विराम

मैं आपके आगे शीश झुकाता हूँ
मैं कुछ कहना चाहता हूँ।

वो डगमगाते-लड़खड़ाते हुए
कठघरे में खड़े
माफ़ नहीं करेगा इतिहास मुझको
भांजे गर न कहता मैं ये बात तुमको

माना मैंने कार्यवाही की गरिमा भंग की
पर गौर सुनिए ये बात ढंग की

ये जो हृष्ट-पुष्ट वृक्ष मेरा दुर्योधन बना है
मेरे क्रोध में ही रमा है।

मैंने अपने मन में उफनती अग्नि पिलाई है
विष के उपवन में मैंने करी इसकी सिंचाई है

और ये तो कुछ भी नहीं है
मेरे आसक्त की कोई हद नहीं है

मैंने खुद ही ब्रष्ट की बुद्धि तुम्हारी, अंधे तो बहुत है
लेकिन भांजे तुम्हारी तो दृष्टि ही नहीं है

कसूर इसका कुछ भी नहीं है, ये तो बस मेरे हाथों की कठपुतली है
मैं हूँ नाथ, रुख तुम्हारी मैंने बदली है

मैं अपनी कथा सुनाता हूँ
इस लंगड़ाते शकुनि की व्यथा सुनाता हूँ

आँखों का तारा मैं अपने पिता और भाइयों का लाडला था
इन कुरुवंशियों ने उन सबको एक-एक कर मार डाला

पिता की अस्थियों से बने पासे मैंने जहां फेंके
धराशायी हुए, धुरंधरों ने माथे टेके

आहुति दी मैंने अपनी बहन, अपने वंश की
और सौगंध रण की उठा ली

ये महाभारत कुछ नहीं बस मेरा रचाया
भाई को भाई से लड़वाया।

सब ने खोया किसी को, रण में सब अधूरे थे
एक मामा शकुनि थे जो वंशहीन होकर भी पूरे थे

बेचारे कौरवों ने बातें मेरे ही मानी
पर इस नरसंहार की नहीं है मुझे ग्लानि

अब मैं बेइज़्ज़त बरी हूँ या फांसी मिले ये तो कुछ तय नहीं
आंख के बदले आंख कटे मुझे अब कोई भय नहीं।