बंद थे, दबे-कुछले,
आखिरकार तंग रास्ते गलियों से निकले।
ये सपने कूदते-फांदते,
ये सपने दौड़ते-भागते पहुँचे।
मेट्रो के स्टेशन पर,
वक्त की दौड़ में वक्त को पिछड़ाते।
मयान से निकली तलवार, ये तेज़-तरार,
यहाँ सभी हैं समान,
और सभी का होता है सम्मान।
मुझे मेरी मंजिलों तक पहुँचाती,
मेरे सपनों को सच कर दिखाती।
धन्यवाद दिल से, दिल्ली की मेट्रो,
दिल से ही है तुझे सलाम।