जिस राह की है मंज़िल तू
उसे तीर्थ धाम कर के बैठा है
याद रहे तू हमेशा ही ,हरदम
खुद को ये काम देकर बैठा है
इबादते है बेकार उसके लिए
तुझे जाप्ता है ,तेरा नाम रटकर बैठा है
तेरे इम्तहान की है कदर उसे
जो आस पर बैठा है
लालम लाल है नज़रे उसकी
जो नींदे हराम कर के बैठा है
जान छिड़कती है हज़ारो उसकी हैसियत पे
एक वो है जो तुझ पर मर बैठा है
दैयारों का मौहताज नहीं वो
जो अपनी हद लांग बैठा है
खुद खुदा भी है शर्मिंदा
जो हर दुआ में तुझे मांग बैठा है
कोई कसार नहीं है बाकी
वो जो प्रयास कर के बैठा है